वैसे तो इस मुहावरे से जून महीने का कोई लेना देना नहीं हैं फिर भी न कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाता है ये शब्द। "2 जून की रोटी" की कीमत हम क्या समझे? सब-कुछ बना बनाया जो मिल जाता है हमे। वैसे तो ये सबका मौलिक अधिकार है पर फिर भी बहुतों को जूझना पड़ता है इस "2 जून की रोटी" के लिए। सही मायने में इसकी कीमत तो एक ग़रीब या मजदूर ही बता सकता है जो दिन-रात एक कर देता है "2 जून की रोटी" के लिए। सड़क पर बैठा एक भिखारी, जिसे जन्म लेते वक़्त ये कहाँ पता था, की कितनी ही यातनाओं से गुजरना होगा उसे "दो जून की रोटी" के लिए।
जमाना बहुत ही तेज़ गति से बदल रहा है,लोग बदल रहे हैं,रहन-सहन का तरीका तक बदल रहा है। हम इतनी तेज़ गति से आगे बढ़ रहे हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। चाँद तक जा पहुँचे हैं हम एवं आए दिन नए-नए प्रयोग किये जा रहे हैं। "विकासशील" से "विकसित" देशों की सूची में शुमार होने को अग्रसर हैं हम। किन्तु एक काला सच यह भी है कि हमारे ही बीच, हमारे ही कुछ लोग तरस रहें हैं आज केवल "2 जून की रोटी" के लिए! ये कैसा विकास है?
एक और तो हम थकते नहीं सामाजिक न्याय की बात करते हुए, किन्तु आज भी कोई बाप तरसता है अपने बच्चों को "2 जून की रोटी" देने के लिए।
यह विफलता किसकी है?
सिस्टम की या सरकार की या अंधाधुंध व्यापार(पूंजीवाद) की! जिसने अमीरी एवं गरीबी की खाई को और भी गहरा कर दिया है। मैं नहीं जानता। मैं तो केवल इतना जनता हूँ की रौशनी से जगमग एवम चकाचौन्ध से भरे इस दुनिया में एक दुनिया वह भी है जहाँ केवल गरीबी है, भूखमड़ी है!
गलती चाहे किसी की भी, कचोट तो माँ भारती के मन में भी होगा, जहां एक और हम सुखी-संपन्न हैं तो वही दूसरी ओर एक तबका आज भी तड़पता है केवल "2 जून की रोटी" के लिए!
सुनने में बड़ा अजीब सा लगता है यह, "दो जून की रोटी" किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि इस "दो जून की रोटी" का आज भी उतना ही महत्व है जितना हज़ारो साल पहले था एवं कल भी यह उतना ही महत्वपूर्ण रहने वाला है जितना की आज है! इंसान को जन्म से मृत्यु तक "2 जून की रोटी" चाहिए ही चाहिए।
आज तो फिर भी ठीक है, पिता जी कमा रहे हैं बेटे-बेटी खा रहे हैं। किंतु कल जब हम भी अपने जीवन के उसी दौड़ में जा चुके होंगे जब हमें सही मायने में समझ आयेगा कितना महत्वपूर्ण है व कितने ही जातन से मिलता है यह "दो जून की रोटी"।
ख़ैर, आज 2 जून है और आज की रोटी काफ़ी स्वादिष्ट है!
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